भारत के पूर्व राष्ट्रपति, मिसाइलमैन और असंख्य जनता के चहेते डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी मेधा, प्रतिभा, योग्यता और कड़ी मेहनत के बूते देश को रॉकेट से लेकर मिसाइल तक बहुत कुछ दिया। उन्होंने सदैव इस बात पर जोर दिया कि भारत जो भी विकसित करे, उसे अपने दम पर करे। वे विदेशों से किसी भी तरह की सहायता लेने से पहले कई बार सोचते और स्वयं करने पर भरोसा करते थे। उनकी इस स्वदेशी-जिद के पीछे अपमान का वह एहसास था, जिसे जर्मनी के एक वैज्ञानिक ने अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा में भोगा था। उस वैज्ञानिक ने डॉ. कलाम को दुःखी मन से सलाह दी थी- 'जीवन में जो भी करना, अपना करना। किसी की नकल या किसी की अत्यधिक सहायता से मत करना। अन्यथा तुम्हारी खोज को भी किसी और का साबित कर दिया जाएगा।'
किस्सा सन् 1978 का है। उस दौर में डॉ. कलाम रॉकेट प्रणाली विकसित करने के महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट में काम कर रहे थे। उसी दौरान उनकी मुलाकात अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा में काम करने वाले जर्मनी के वैज्ञानिक फॉन ब्रॉन से हुई। ब्रॉन उस दलके विशेष वैज्ञानिक थे, जिसने अपोलो मिशन में काम किया था। अपोलो मिशन के ही रॉकेट ने मनुष्य को पहली बार चांद पर उतारा था।
डॉ. कलाम ने ब्रॉन से पूछा- 'अपने कार्य जीवन का बड़ा हिस्सा जर्मनी में बिताने के बाद आप अमेरिका में कैसा महसूस करते हैं?' ब्रॉन ने जो जवाब दिया, उसे सुनकर डॉ. कलाम को लगा मानो ब्रॉन की किसी दुखती रग को छू लिया हो। ब्रॉन ने सलाह दी 'अमेरिकी हर चीज पर गैर-अमेरिकियों को संदेह और अपमान की दृष्टि से देखते हैं। वे नॉन-इनवेंटेड-हियर मनोविकार से ग्रस्त हैं। इसलिए अगर तुम रॉकेट विज्ञान में कुछ महत्वपूर्ण करना चाहते हो तो, अपने देश में ही रहकर अपने बूते कुछ करो।' दरअसल, ब्रॉन ने ऐसा इसलिए कहा था क्योंकि अपोलो मिशन में ब्रॉन के महत्वपूर्ण योगदान को कभी सम्मान नहीं दिया गया, संभवतः इसलिए क्योंकि वे जर्मन मूल के थे।