बाड़मेर में दो नाबालिग दलित लड़की और एक नाबालिग मुस्लिम लड़के के शवों के एक ही पेड़ से लटके जाने की सनसनीखेज घटना को रिपोर्ट करने के लिए जोधपुर रेलवे स्टेशन से मैंने बाड़मेर के लिए कैब ली.
कैब वाले ने पूछा कि बाड़मेर में कहां जाना है, मैंने बताया कि उस गांव तक जहां तीन नाबालिगों के शव पेड़ से लटके मिले हैं, उसने पलटकर पूछा क्या काम करते हो- मैंने बताया पत्रकार हूं.
उसने छूटते ही कहा ये भी कोई कहानी है, जिसे करने के लिए दिल्ली से आ गए, पता भी है कहां है वो गांव.
मुझे झटका सा लगा, कि जिस घटना पर न्यूज़रूम में हर शख्स बेचैन हो गया था, उस घटना पर इस कैब ड्राइवर पर कोई असर क्यों नहीं पड़ा.
मैंने भी पूछा- क्यों.
उसने बताया- 'अरे भाई, तीनों ने आत्महत्या कर ली होगी. बाड़मेर में लोग बात-बात पर आत्महत्या कर लेते हैं.'
फिर वो यह बताना लगा कि कैसे पिछले ही महीने बाड़मेर में ही एक दलित लड़की और एक राजपूत लड़के ने आत्महत्या कर ली थी क्योंकि दोनों के परिवार शादी करने को तैयार नहीं थे.
आत्महत्या में 'नंबर एक'
बहरहाल, रेगिस्तानी और निर्जन इलाके में घंटों सफ़र तय करके जब मैं बाड़मेर के सरुपे का तला गांव पहुंचा तो नाबालिग दलित लड़कियों के माता-पिता ने भले बार बार कहा कि उनकी बेटियों की हत्या हुई है, लेकिन अभी तक की पुलिस जांच में इसे आत्महत्या ही बताया जा रहा है. कई गांव वाले भी इसे आत्महत्या ही मान रहे हैं.
इलाके के डिप्टी एसपी सुरेंद्र प्रजापत के मुताबिक़ गांव वालों से पुलिस की पूछताछ में ये भी पता चला था कि दो लड़कियों में से एक ने कुछ ही महीने पहले पानी के टांके में कूद कर जान देने की कोशिश की थी.
बाड़मेर में लोग अपने अपने घरों के पीछे बारिश का पानी जमा करने के लिए गड्ढा खोदकर रखते हैं, जिसे टांका कहा जाता है. इन टांकों को अब सरकार की मनरेगा जैसी योजनाओं के तहत पक्का कर दिया जाता है, इसमें जमा पानी का इस्तेमाल ही लोग पानी पीने के लिए करते हैं.
वैसे ये दोनों कोई अकेले मामले नहीं हैं, बाड़मेर में ये हर दूसरे तीसरे घर में आत्म हत्या या आत्म हत्या की कोशिश वाले मामले मिल जाते हैं.
वैसे तो भारत में आत्महत्या की दर के हिसाब से ज़िलों के किसी विश्वसनीय आकलन की जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन मोटे तौर पर महिलाओं, किसानों और बच्चों की आत्महत्याएं बाड़मेर को भारत का सबसे ख़राब ज़िला बनाने वाली हैं.
बाड़मेर ज़िले पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक़ 2017 में जिले में आत्महत्या के 125 मामले देखने को मिले. 2016 में आत्महत्याओं के 134 मामले सामने आए थे, जबकि 2015 में कुल 139 मामले रिकॉर्ड हुए थे.
इन आंकड़ों में अगर पुरुष और महिला का औसत देखना चाहते हों, तो 2017 के 125 मामले में जहां 86 पुरुषों की जान गई, वहीं इसमें 39 महिलाएं थी. 2016 में 84 पुरुष और 50 महिलाओं ने आत्महत्या की थी. जबकि 2015 में 70 पुरुष और 67 महिलाओं ने मौत को गले लगाया था.
अकेले अकेले रहने का दंश
बाड़मेर ज़िला पुलिस अधीक्षक गगनदीप सिंघला बताते हैं, "बाक़ी जिलों की तुलना में हमारे यहां आत्महत्या की दर ज़्यादा है. ढाणी कल्चर होने से लोग दूर-दूर रहते हैं, ढाणी में सामूहिक परिवार नहीं होता है, ऐसे में थोड़ी भी तकलीफ़ होने पर, आपसी संवाद नहीं होने पर लोग सीधे आत्महत्या कर लेते हैं. हमने हेल्पलाइन चालू करके, लोगों को जागरूक करके इसे कम करने की कोशिश की है, अभी अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली है."
बाड़मेर में ढाणी, झोपड़ियों को कहते हैं, एक झोपड़ी में ही किसी एक परिवार का पूरा घर होता है. पर ऐसी घटनाएं किसी परिवार के लिए क्या कहर बनकर टूट सकती हैं, इसका अंदाज़ा आपको बाड़मेर के धोरीमन्ना क्षेत्र के खेमपुरा बाछड़ाऊ के पीराराम जाट से मिलने पर ही होगी. 10 महीने पहले तक पीराराम का हंसता खेलता परिवार था.
छोटी सी प्राइवेट नौकरी थी, 10 हज़ार रुपए महीने की पगार थी, तीन बच्चियां और पत्नी. लेकिन सबकुछ एक झटके में तबाह हो गया. पीराराम बताते हैं, "क्या बताऊं, छोटी से बात पर मेरी मां और पत्नी में कहासुनी हो गई. मेरी पत्नी, मेरी तीन बच्चियों के साथ टांके में कूद गई."
इस हादसे में तीनों बच्चियों की मौत हो गई और पीराराम की पत्नी टांके में पानी कम होने की वजह से बचा लीं गईं, पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया. पीराराम कहते हैं, "10 हज़ार रुपए कमाने वाले आदमी को कर्ज लेकर लाखों रुपए ख़र्च करने पड़े तब जाकर पत्नी को ज़मानत मिली है."
पीराराम, उनकी पत्नी और मां, सब एक साथ ही रह रहे हैं, लेकिन परिवार कर्ज के बोझ में डूबा है और मां-बाप मासूम बेटियों की याद में रह रहकर सिसक उठते हैं.
इलाके के मौजूदा बीजेपी सांसद कर्नल सोना राम भी मानते हैं कि राजस्थान में आत्महत्याएं आम समस्या हैं पर बाड़मेर में दूसरे जिलों की तुलना में यह ज़्यादा ही होता है. सोना राम 2014 में बीजेपी के उम्मीदवार के तौर पर भले जीते हों लेकिन 1996 से 2004 तक 11वीं, 12वीं और 13वीं लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर सांसद बने थे.
आर्थिक स्थिति भी है वजह
इतने लंबे समय तक इलाके के जन प्रतिनिधि रहने के बाद भी वे अफ़सोस जताते हैं कि आत्महत्या के मामले में उनका क्षेत्र ख़ासा बदनाम रहा है. वे बताते हैं, "इलाक़े में लोगों की आर्थिक स्थिति बेहद कमज़ोर है, लोगों के पास काम धंधे करने के अवसर भी उतने नहीं हैं, जिसके चलते लोगों के सामने जीवन का संकट भी बना हुआ है."
हालांकि बाड़मेर के ज़िलाधिकारी शिवप्रसाद मदन नकाते दावा करते हैं कि हालात में सुधार हो रहा है और लोगों को जागरूक बनाया जा रहा है. उन्होंने बताया, "ज़िले में आम लोगों और खासकर महिलाओं की आत्महत्या को कम करने के लिए हेल्पलाइन शुरू की गई है, जहां महिलाओं से बात करने के लिए दो संवदेनशील काउंसलर हमेशा मौजूद होती हैं, दो संवेदनशील महिला कांस्टेबल को उनकी शिकायतों को सुनने के लिए तैनात किया है."
वैसे इसकी एक बड़ी वजह बेमेल शादियां भी हैं, राजस्थान के इस ज़िले के ग्रामीण इलाक़ों में आज भी बेहद कम उम्र में लड़कियों की शादी हो जाती है, जिसके बाद कई मामले में शादी के कामयाब नहीं होने पर लड़की ही नहीं पुरुषों में भी आत्महत्या के मामले सामने आए हैं.
गगनदीप सिंघला कहते हैं, "बाड़मेर के कुछ पॉकेट्स में मसलन भीरा एरिया, बायतू एरिया, गोधा मालिनी एरिया ये ऐसे मामले ज़्यादा देखने को मिले हैं, ये वो इलाक़े हैं जो जाट और बिश्नोई बहुल इलाके हैं."
गगनदीप ये भी कहते हैं कि बाड़मेर में आत्महत्याओं का चलन कोई तीन चार साल में नहीं बढ़ा है, बल्कि परंपरागत तौर पर इस ज़िले में आत्महत्या की दर ज़्यादा रही है.
आधुनिकता की भी वजह
वहीं बाड़मेर में 1990 से ही सामाजिक कार्यों से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ता और गैर सरकारी संस्था श्योर की कर्ता-धर्ता लता कच्छवाह मानती हैं कि ज़िले में आत्महत्या ने महामारी का रूप ले लिया है. वह बताती हैं, "शहरी हो या ग्रामीण, हर जगह आत्महत्याओं के मामले बढ़ रहे हैं. एक तो शहरी लड़के लड़कियों में नकली आधुनिकता की होड़ बढ़ी है तो दूसरी तरफ़ विवाहेत्तर रिश्तों के शक की वजह से भी आत्महत्याएं हो रही हैं."
बाड़मेर से पूर्व सासंद और मौजूदा वक्त में राजस्थान विधानसभा के सदस्य मानवेंद्र सिंह इस समस्या पर चर्चा करते हुए बताते हैं, "दरअसल परिवार की परिकल्पना टूट रही है, लोग शहरों की नकल करते हुए उससे भी आगे निकल आए हैं. मेरे ख्याल से संयुक्त परिवारों के बिखराव और परिवार में परस्पर विश्वास की कमी की वजह से ऐसी आत्महत्याएं सामने आ रही हैं."
वहीं बाड़मेर के जिलाधिकारी शिवप्रसाद नकाते कहते हैं कि ज़िले की महिलाओं को अवसाद और अकेलेपन से बचाने के लए उन्होंने बीते एक साल करीब ढाई सौ महिलाओं के स्वंयसेवी समूहों का गठन कराया है. ताकि उनमें आपसी संपर्क और संवाद की दुनिया स्थापित हो.
क्या है प्रशासन?
इतना ही नहीं ग्रामीण महिलाओं को आजीविका कमाने के साधन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से ज़िले के सभी आंगनबाड़ी सेंटर मे कारपोरेट समूह के कारपोरेट सोशल रिस्पांस्बिलिटी फंड के ज़रिए महिलाओं को सिलाई कढ़ाई और हस्तशिल्प के प्रशिक्षण देने की योजना को अमल में लाया जा रहा है.
जिलाधिकारी के मुताबिक जिला अस्पताल में मानसिक चिकित्सा का सेंटर अलग से खोला गया है और दूरवर्ती इलाक़ों तक इन चिकित्सकों को तैनात करने की कोशिश की जा रही है.
इतना ही नहीं, अब जगह जगह पर टांकों में ढक्कन दिखाई देते हैं, इसके अलावा उसमें ज़िला प्रशासन की ओर से जंजीर भी डलवाई जा रही है ताकि अगर कोई कूद भी जाए तो आख़िर पलों में वो खुद को मरने से बचा सके.
इलाके के बीते एक दशक से पत्रकारिता कर रहे प्रेम दान बताते हैं, "इन आत्महत्याओं को प्रेम प्रसंग और घरेलू कलह के अलावा इस नजर से भी देखना चाहिए कि बाड़मेर में खेती बारिश आधारित होती है, मुश्किल से एक फसल हो पाती है, वो भी बारिश पर निर्भर होती है. आत्महत्याओं में आर्थिक तंगी भी एक अहम वजह है."
वैसे मानवेंद्र सिंह ये नहीं मानते हैं कि विकास के मामले में पिछड़ने के चलते उनके क्षेत्र में आत्महत्याएं महामारी का रूप ले चुकी हैं, वे कहते हैं, सड़क हो या फिर बिजली हो, देखिए गांव गांव तक आपस में जुड़ गया है, इस समस्या की जड़ समाज के अंदर ही छिपी है, जिसका हल समाज को ही तलाशना होगा.
वहीं सामाजिक कार्यकर्ता लता कच्छवाह मानती हैं कि ज़िले के लोगों के बीच बड़े स्तर पर लगातार काउंसलिंग अभियान चलाए जाने की ज़रूरत है. ये काउंसलिंग स्कूली बच्चों से लेकर दूर दराज तक के ग्रामीण इलाक़ों तक दिए जाने की ज़रूरत है.
वहीं वरिष्ठ पत्रकार प्रेम दान के मुताबिक जब तक लोगों को काम धंधा नहीं मिलता, खेती किसानी के लिए पानी का प्रबंध नहीं होता है तब तक गांव और शहर की खाई नहीं पटेगी और ये मुश्किल बनी रहेगी.
बाड़मेर क्षेत्रफल के हिसाब से राजस्थान का तीसरा सबसे बड़ा ज़िला है, जैसलमेर और बीकानेर के बाद, आबादी करीब 10 लाख से ज़्यादा है और ये पूरा ज़िला मूलत खेती किसानी पर आधारित है.