श्रीराम जन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट की ओर से राम मंदिर निर्माण स्थल पर जमीन में लगभग 200 फीट एक टाइम कैप्सूल रखे जाने के बाद एक बार फिर से इसकी चर्चा होने लगी है। इस टाइम कैप्सूल का मकसद यह है कि सालों बाद भी यदि कोई श्रीराम जन्मभूमि के बारे में जानना चाहे तो वो इससे जान सकता है। हम आपको इस खबर के माध्यम से बताएंगे कि टाइम कैप्सूल आखिर होता क्या है? इसको जमीन के नीचे ही क्यों रखा जाता है? इसको बनाने में किस धातु का इस्तेमाल किया जाता है? अब से पहले किन-किन जगहों पर ऐसे कैप्सूल रखे जा चुके हैं।
ऐसा नहीं है कि किसी जगह पर टाइम कैप्सूल पहली बार रखा जा रहा है इससे पहले भी देश में अलग-अलग जगहों पर टाइम कैप्सूल रखे जा चुके हैं। लाल किला, कानपुर के आइआइटी कॉलेज और कृषि विश्वविद्यालय में इसे रखा जा चुका है। अब ऐतिहासिक रामजन्मभूमि मंदिर निर्माण में टाइम कैप्सूल रखा जा रहा है। टाइम कैप्सूल का इस्तेमाल दुनिया के अन्य देशों में भी किया जा रहा है।
श्रीराम जन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट के अनुसार, राम जन्मभूमि के इतिहास को सिद्ध करने के लिए जितनी लंबी लड़ाई कोर्ट में लड़नी पड़ी है, उससे यह बात सामने आई है कि अब जो मंदिर बनवाएंगे, उसमें एक 'टाइम कैप्सूल' बनाकर दो सौ फीट नीचे डाला जाएगा। जिससे यदि किसी तरह का विवाद भविष्य में हो तो इससे उसे सुलझाया जा सके। अब तक देश में लगभग आधा दर्जन जगहों पर इस तरह के टाइम कैप्सूल पहले भी रखे जा चुके हैं। इसमें ऐतिहासिक लाल किला भी शामिल है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे 32 फीट नीचे रखा था।
इतिहास रहेगा जमीन के अंदर, नहीं होगी कोई समस्या
भविष्य में जब कोई भी इतिहास देखना चाहेगा तो श्रीराम जन्मभूमि के संघर्ष के इतिहास के साथ यह तथ्य भी निकल कर आएगा, जिससे कोई भी विवाद जन्म ही नहीं लेगा। श्रीराम जन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट के सदस्य कामेश्वर चौपाल ने न्यूज एजेंसी एएनआई से बातचीत के दौरान इस तथ्य की पुष्टि की है। उनके अनुसार राम मंदिर निर्माण स्थल पर जमीन में लगभग 200 फीट नीचे एक टाइम कैप्सूल रखा जाएगा।
टाइम कैप्सूल होता क्या है?
टाइम कैप्सूल एक कंटेनर की तरह होता है जिसे विशिष्ट सामग्री से बनाया जाता है। टाइम कैप्सूल हर तरह के मौसम का सामना करने में सक्षम होता है, उसे जमीन के अंदर काफी गहराई में दफनाया जाता है। काफी गहराई में होने के बावजूद भी हजारों साल तक न तो उसको कोई नुकसान पहुंचता है और न ही वह सड़ता-गलता है।
400 साल पुराना टाइम कैप्सूल बर्गोस में मिला था
30 नवंबर, 2017 में स्पेन के बर्गोस में करीब 400 साल पुराना टाइम कैप्सूल मिला था। यह यीशू मसीह के मूर्ति के रूप में था। मूर्ति के अंदर एक दस्तावेज था जिसमें 1777 के आसपास की आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सूचना थी। फिलहाल इसे ही सबसे पुराना टाइम कैप्सूल माना जा रहा है। इसके बाद फिलहाल ऐसा कोई टाइम कैप्सूल नहीं मिला है।
टाइम कैप्सूल क्यों दफनाया जाता है?
टाइम कैप्सूल को दफनाने का मकसद किसी समाज, काल या देश के इतिहास को सुरक्षित रखना होता है। यह एक तरह से भविष्य के लोगों के साथ संवाद है। इससे भविष्य की पीढ़ी को किसी खास युग, समाज और देश के बारे में जानने में मदद मिलती है। मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो साल 2011 में उन पर भी टाइम कैप्सूल दफनाने का विपक्ष ने आरोप लगाया था। विपक्ष का कहना था कि गांधीनगर में निर्मित महात्मा मंदिर के नीचे टाइम कैप्सूल दफनाया गया है जिसमें मोदी ने अपनी उपलब्धियों का बखान किया है।
विशिष्ट सामग्री से होता है टाइम कैप्सूल का निर्माण
टाइम कैप्सूल एक कंटेनर की तरह होता है जिसे विशेष प्रकार के तांबे (कॉपर) से बनाया जा रहा है और इसकी लंबाई करीब तीन फुट होगी। इस कॉपर की विशेषता यह है कि यह सालों साल खराब नही होता है और सैकड़ों हजारों साल बाद भी इसे जब जमीन से निकाला जाएगा तो इसमें मौजूद सभी दस्तावेज पूरी तरह से सुरक्षित होंगे। टाइम कैप्सूल हर तरह के मौसम का सामना करने में सक्षम होता है, उसे जमीन के अंदर काफी गहराई में दफनाया जाता है। काफी गहराई में होने के बावजूद भी हजारों साल तक न तो उसको कोई नुकसान पहुंचता है और न ही वह सड़ता-गलता है।
आईआईटी कानपुर में भी रखा गया टाइम कैप्सूल
आईआईटी कानपुर ने भी अपने स्वर्ण जयंती कार्यक्रमों के दौरान पिछले 50 साल के इतिहास को संजोकर रखने के लिए टाइम कैप्सूल का निर्माण करवाया था। इस टाइम कैप्सूल को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल फरवरी 2010 में जमीन के नीचे रखा था। इस टाइम कैप्सूल में आईआईटी में अब तक के सभी रिसर्च, अनुसंधान, शिक्षकों एवं फैकल्टी के बारे में सारी जानकारी सुरक्षित रखी गई थीं ताकि अगर कभी यह दुनिया तबाह भी हो जाए तो आईआईटी कानपुर का इतिहास सुरक्षित रह सके।
चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय कानपुर
इसके अलावा कानपुर के ही चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय में भी टाइम कैप्सूल रखा गया है। इसमें भी कृषि विश्वविद्यालय के इतिहास से संबंधित तमाम तरह की जानकारियों को सहेजकर उसे जमीन के नीचे रखा गया है।